प्रस्तावना
उर्दू का आरम्भ हालाँकि सैनिक छावनियों और बाज़ारों में बोली जानेवाली
मिश्रित भाषा के रूप में हुआ था मगर आगे चलकर उसे मुग़ल बादशाहों, नवाबों
और सरदारों का आश्रय प्राप्त हो गया तथा उसमें प्राय: फ़ारसी और अ़रबी
कविताओं के अनुकरण पर यथेष्ठ कविताएँ होने लगीं तथा वह राज-दरबारों और
महलों में ज़ीनत पाने लगी अर्थात् अदब यानी सम्मान से बोली जाने लगी।
इसका परिणाम यह हुआ कि सैकड़ों वर्षों के इस प्रकार के व्यवहार से वह एक
बहुत-ही घुटी-मँजी और पॉलिशदार बढिय़ा भाषा हो गई। उसमें अनेक ऐसे गुण भी
आ गए जिनके योग से कोई भाषा लच्छेदार, चटपटी, सुन्दर, मनमोहक और चटकीली
हो जाती है। मुग़लकाल में जब इसे राजाश्रय प्राप्त हो गया, तब मुसलमानों
के अतिरिक्त बहुत-से हिन्दुओं के लिए भी इसकी शिक्षा प्राप्त करना
अनिवार्य हो गया, इसलिए उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक इसकी 'दिन दूनी,
रात चौगुनी' उन्नति होती रही। मुसलमानों के अलावा बहुत-से हिन्दु कवियों
और लेखकों ने भी अपनी रचनाओं द्वारा इस भाषा के साहित्य को यथेष्ठ अलंकृत
और उन्नत किया परन्तु आज़ादी के बाद जिस तरह की राजनीति हावी होती रही
है, वह इस लच्छेदार भाषा के लिए सुखद नहीं कही जा सकती। एक वर्ग-विशेष और
धर्म-विशेष से जोड़कर उर्दू-भाषा को एक संकुचित दायरे में क़ैद करने का
कुप्रयास किया जा रहा है। इससे भारतीय उपमहाद्वीप में पली-पनपी इस भाषा को
बहुत धक्का पहुँच रहा है तथा इसके पक्षपाती व पोषक बहुत-कुछ सशंकित हो
रहे हैं परन्तु इन सब बातों से हमारा कोई मतलब नहीं है। हमारा आशय सिर्फ़
इस बात से है कि उर्दू एक स्वतंत्र भाषा बन गई है और उसमें मुग़लकालीन
दुर्लभ-ग्रंथों एवं दस्तावेज़ों के अतिरिक्त अच्छा साहित्य भी विद्यमान
है। इन साहित्यिक और ऐतिहासिक ग्रंथों को अच्छे ढंग से तभी समझा जा
सकता है, जब उन शब्दों के अर्थ हमें मालूम हों जो अ़रबी, फ़ारसी
और तुर्की की सीढिय़ों से उर्दू के आँगन में उतरे हैं, साथ ही उन शब्दों के अर्थ ज्ञात
होना भी आवश्यक है जो हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की कोख से जन्म
लेकर उर्दू की गोद में खेलते रहे हैं तथा इस भाषा को प्रभावशाली बनाने में लगातार
अपना महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। इन शब्दों की मिठास और लोकप्रियता का
अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अ़ाम बोलचाल में भी ये शब्द
अनायास ही ज़बान पर आ जाते हैं।
हालाँकि सही अर्थ न जानने के कारण कभी-कभी लोग इनका ग़लत इस्तेमाल भी कर
जाते हैं, जैसे- 'ख़िलाफ़त' का अर्थ कुछ लोग 'विरोध' के सन्दर्भ में
लेते हैं, जबकि यह एकदम ग़लत है। विरोध के संदर्भ में तो उन्हें 'मुख़ालिफ़त'
शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए लेकिन भाषायिक अज्ञानता की
वजह से वे ऐसा कर जाते हैं। 'ख़िलाफ़त' का सही अर्थ है--'प्रतिनिधित्व'। इस्लाम-धर्म के
प्रचार के लिए जो धार्मिक आन्दोलन चलाया गया, दरअस्ल, उस आन्दोलन का नाम
'ख़िलाफ़त आन्दोलन' था और उस आन्दोलन के अगुआ को 'ख़लीफ़ा' कहा जाता था।
ऐसे ही अन्य-अनेक शब्दों का ग़लत इस्तेमाल अक्सर देखने में आ जाता है और
मन दु:खी होता है। कई बार तो स्थिति बहुत ही उपहासजनक बन जाती है। ऐसी ही
स्थिति-परिस्थिति से बचने-बचाने के लिए एक अच्छा 'उर्दू-हिन्दी शब्दकोश'
तैयार करने की योजना बनी। काम शुरू किया तो समझ में आया कि यह कार्य इतना
सरल और सुगम नहीं है, जितना समझा गया था। सच तो यह है कि किसी भी शब्दकोश
को अकेले तैयार करने का मतलब है कि किसी बड़े यज्ञ को विधिपूर्वक सम्पन्न
करना। जिस प्रकार किसी यज्ञ को सम्पन्न करने के लिए देवताओं का चयन,
आह्वान और आराधना की जाती है, ठीक उसी प्रकार किसी कोश को तैयार करने के
लिए शब्दों का चयन, यथा-स्थान उनका उल्लेख एवं संधान किया जाता है। उक्त
दोनों ही कार्यों में किसी भूल और चूक की कोई गुंजाइश स्वीकार्य नहीं
होती; जऱा-सी ही भूल और चूक से भटकाव और अनर्थ की आशंका प्रबल हो उठती
है। अत: दोनों ही कार्य एकाग्रचित्त होकर पूर्ण लगन और निष्ठा के साथ
करने पर ही भली-भाँति सम्पन्न हो पाते हैं। मैंने भी कोश-रूपी इस यज्ञ को
पूरी लगन एवं निष्ठा से सम्पादित करने का प्रयास किया है ताकि पाठकों को
अधिक से अधिक शब्द और उनके अधिक से अधिक अर्थ मिल सकें।
कोश-सम्बन्धी अपना कार्य प्रारम्भ करने से पहले मैंने ऐसे कोशों की तलाश
शुरू की जो उर्दू-हिन्दी कोश के नाम पर अब तक प्रकाशित हुए हैं। अपनी
शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप सभी शब्दकोशों के विद्वानों ने बहुत अच्छा
करने का प्रयास किया है मगर एक चूक लगभग सभी कोशों में दस्तक देती दिखाई
दी। उस दस्तक से मन में एक प्रश्न उभरा कि उर्दू के विकास में क्या
सिर्फ़ और सिर्फ़ अ़रबी, फ़ारसी और तुर्की भाषाओं के शब्दों का ही योगदान
रहा? क्या भारतीय उपमहाद्वीप की भाषाओं ने उर्दू के अस्तित्व और विकास
में अपनी कोई भूमिका अदा नहीं की? अगर भारतीय भाषाओं के शब्दों ने उर्दू
के विकास में अपना योगदान दिया तो उन शब्दों की पूर्ण उपेक्षा अब तक
प्रकाशित हुए शब्दकोश में कैसे हुई? यह चूक कोशकारों से अंजाने में हुई
या जानबूझकर--यह बात तो वही जानें मगर इसने दु:ख की स्थिति अवश्य ही पैदा कर
दी। इससे मुझे तो दु:ख हुआ ही, उन पाठकों को भी निराशा हाथ लगी होगी, जो
उर्दू नहीं जानते और उर्दू शायरी को पढऩे के लिए उनके हिन्दी संस्करण
ख़रीदकर पढ़ते हैं तथा कठिन शब्दों के अर्थ तलाशने के लिए उर्दू-हिन्दी
शब्दकोश का सहारा लेते हैं, ऐसे में उन्हें अ़रबी-फ़ारसी के शब्दों के
अर्थ तो मिल जाते हैं, मगर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के उन दुरूह और
कठिन शब्दों के अर्थ नहीं मिल पाते जिन्हें उर्दू शायरों ने अपनी
रेख़्त:ज़बान (उर्दू) में पूरी शिद्दत के साथ इस्तेमाल किया है। आज अगर
हम मीर तक़ी मीर और मिर्ज़ा ग़ालिब या किसी अन्य पुराने शाइर के कलाम को
खंगालें तो उनमें भारतीय भाषाओं के शब्दों की भरमार मिलती है। लेकिन उन शब्दों के अर्थ ढूँढने के लिए पाठकों को दूसरा शब्द-कोश (हिन्दी का) ढूँढना पड़ता है। सवाल उठता
है कि उर्दू शायरी पढऩेवाला पाठक एक ही शब्दकोश से अपना काम क्यों नहीं
निकाल पाता? ठीक ऐसी ही स्थिति से उस समय दो-चार होना पड़ता है जब कोई
ग़ैर-उर्दू-भाषी ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और थाना-कोर्ट-कचहरी के हिन्दी
लिपि के काग़ज़ात देखने का प्रयास करता है, क्योंकि आज भी थाने-तहसीलों
में वही मुग़लकालीन इबारत प्रचलित है, फ़र्क़ है तो बस इतना ही कि पहले
ये दस्तावेज़ उर्दू में लिपिबद्घ होते थे, अब हिन्दी लिपि में होते हैं।
मैंने काफ़ी सोच-विचार करने के बाद यह मन बनाया कि मैं अब तक के कोशों
में रही कमी को दूर करते हुए एक 'बृहत् उर्दू-हिन्दी कोश' अपने पाठकों के
समक्ष प्रस्तुत करूँगा बेशक इसमें समय और साधना का कितना ही विस्तार
क्यों न हो।
अपने इस प्रयास को मैंने आगे बढ़ाया और भारतीय भाषाओं (हिन्दी, संस्कृत,
गुजराती, डिंगल, देशज, पाली और प्राकृत) के उन शब्दों को भी अपने कोश में
रखने का भरसक प्रयास किया है, जिन्होंने उर्दू भाषा और इसके साहित्य के
विकास में अपना पूर्ण सहयोग दिया है।
मेरा मानना है कि उर्दू के विकास में जितनी भूमिका अ़रबी, फ़ारसी और
तुर्की के शब्दों ने निभाई, उससे कई गुना अधिक भूमिका भारतीय भाषाओं ने
इसके अस्तित्व और विकास में निभाई है। सच कहूँ तो अ़रबी भाषाओं ने इसे
अपनी कोख से जन्म दिया है तो हिन्दी भाषाओं ने इसका ठीक उस प्रकार
लालन-पालन किया जैसे देवकी द्वारा कृष्ण को जन्मने के बाद यशोदा ने उसका
लालन-पालन किया। न कृष्ण कभी यह फ़ैसला कर पाए कि वह देवकी और यशोदा में
से किसे अपनी माँ मानें, किसे नहीं, ठीक इसी तरह आज उर्दू भाषा भी उस समय
(जब उसे धर्म और सम्प्रदाय-विशेष से जोडऩे की नापाक साजि़श की जाती है)
ऐसे ही दोराहे पर खड़ी दिखाई देती है कि वह अपनी माँ के रूप में अ़रब
देशों अथवा सिर्फ़ मुसलमानों की ओर देखे या भारतीय उपमहाद्वीप की उन
भाषाओं के प्रेम-पाश में बँधे, जिनके साथ वह अब तक गलबहियाँ होती रही है।
इस कोश में इस बात पर भी यथेष्ठ ध्यान दिया गया है कि शब्द के उच्चारण की
शुद्धता स्पष्ट हो तथा उसमें किसी प्रकार की चूक एवं त्रुटि की आशंका न
रहे। भाषा के सम्बन्ध में एक अकाट्य सत्य यह है कि उसका महत्त्व उसके
शब्दों के शुद्घ उच्चारण में है। उच्चारण अगर अशुद्घ है तो वक्ता कितना
ही विद्वान् क्यों न हो, श्रोतागण उसे जाहिल और अनपढ़ ही समझेंगे।
उच्चारण में शुद्घता तभी आएगी, जब हम शब्द को शुद्घ रूप से लिखेंगे।
उदाहरण के लिए यदि हम संस्कृत-भाषा के शब्द 'सम्बद्घ' को 'समबदध' लिख दें तो यह
अशुद्घता की तमाम सीमाओं को तोड़कर एक मज़ाक़ बनकर रह जाएगा। इसी प्रकार
यदि हम उर्दू के शब्द 'फ़ुज्ल:' (विष्ठा) को 'फ़ुजला' (विद्वान् लोग) लिख
दें तो कितना बड़ा अन्तर आ जाएगा।
इस कोश में मैंने भारतीय भाषाओं के उन शब्दों को भी लेने का प्रयास किया है
जिनके उच्चारण उर्दू से मिलते-जुलते हैं मगर अर्थ के धरातल पर काफ़ी अन्तर
है। ऐसे शब्दों को इसलिए इस कोश में समाहित किया गया है की पाठक समझ
सकें कि कोई शब्द उर्दू में जो अर्थ दे रहा है, हिन्दी की ज़मीन पर खड़े होने से
उसका अर्थ कैसे और कितना बदल जाता है। उदाहरण के लिए हम 'देव' शब्द
को लेते हैं। 'देव' शब्द अगर उर्दू में बोला जाता है तो इसके अर्थ--दैत्य, राक्षस,
एक नरभक्षी प्राणी-वर्ग; बहुत लम्बा-चौड़ा आदमी; ख़बीस, पलित, पिशाच;
भूतवर्ग, बदरूह; परिओं के पति' आदि हैं, मगर हिन्दी में इसके अर्थ एकदम
विपरीत से हो जाते हैं। हिन्दी में 'देव' के अर्थ हैं--स्वर्ग में रहने या क्रीड़ा
करनेवाला अमर प्राणी, देवता, सुर; पूज्य व्यक्ति; बड़ों के लिए आदर-सूचक
शब्द या सम्बोधन; ब्राह्मणों की एक उपाधि; मेघ, बादल; पारा; देवदार वृक्ष;
देवर; ज्ञानेन्द्रिय आदि है। इसी प्रकार के और भी बहुत से शब्द हैं जो इस कोश
में दिए गए हैं ताकि पाठकों के ज्ञान का विकास हो सके।
कुछ लोग यह प्रश्न भी कर सकते हैं कि 'उर्दू-हिन्दी' कोश को हिन्दी लिपि
में तैयार करते समय उर्दू-लिपि की पूर्णत: उपेक्षा क्यों की गई है तथा
उर्दू-शब्दों को उर्दू-लिपि में क्यों नहीं लिखा गया है? इस विषय में
मेरा यह स्पष्ट मानना है कि उर्दू के पाठक (जो उर्दू-भाषा के जानकार हैं)
तो किसी शब्द का अर्थ देखने के लिए उर्दू-शब्दकोश का ही सहारा लेते हैं
मगर यह कोश मूलत: उन लोगों के लिए है, जो उर्दू-लिपि से अंजान होते हैं
मगर उर्दू के शब्दों की मोहकता जिन्हें आकर्षित और प्रभावित करती रहती
है। ऐसे लोग किसी भी शब्द का सही उच्चारण और उसके अर्थ के लिए उर्दू-कोश
तो देख नहीं पाते, विवशता में उन्हें 'उर्दू-हिन्दी कोश' की शरण में ही
आना पड़ता है। ऐसे लोगों के लिए उर्दू-लिपि में लिखा हुआ कोई भी
शब्दाक्षर किसी काम का नहीं। उनके लिए तो उर्दू लिपि में लिखा गया 'जीम'
(ज) भी वैसा ही है, जैसा 'चे' (च) और 'हे' (ह), क्योंकि नुक़्तों को
छोड़कर बाकी बनावट तीनों शब्दों की एक-जैसी ही है, अत: उर्दू-भाषा से
अनभिज्ञ पाठक इनकी पहचान में धोखा खा जाता है। लिपि की अज्ञानता के कारण
जब वे इसे पढ़ नहीं सकते, समझ नहीं सकते, तो फिर उर्दू-लिपि में शब्द
लिखकर समय और काग़ज़़ क्यों ख़राब किया जाए? हाँ, इस बात का विशेष ध्यान
रखा गया है कि लिपि की अज्ञानता की वजह से शब्द का उच्चारण प्रदूषित न
हो। इसके लिए आवश्यक होने पर 'विशेष स्पष्टीकरण' की व्यवस्था भी की गई
है, ताकि भ्रम की कोई स्थिति उत्पन्न न हो। उदाहरण के लिए उर्दू-भाषा में
'अ' की ध्वनि निकालने के लिए अलग-अलग दो अक्षरों 'अलिफ़' और 'ऐन' का
प्रयोग होता है। इन्हीं दोनों अक्षरों से 'आ', 'इ' और 'ऐ' की मात्राएँ भी बनती
हैं। अत: किस शब्द में 'अलिफ़' से बना 'अ' अथवा 'आ' और 'ऐ' की मात्रा है
तथा किस शब्द में 'ऐन' से बना 'अ़' तथा 'अ़ा' और ऐ' की मात्रा है, इसे भी समझाने
के लिए विशेष व्यवस्था की गई है। 'अलफ़' से बने 'अ' को सामान्य अवस्था
में रखा गया है, जबकि 'ऐन' से बने 'अ़' के नीचे नुक़्ते की व्यवस्था की गई
है ताकि आसानी से इनका फ़र्क़ समझ में आ सके। अगर 'अलिफ़' और 'ऐन' से बने
अक्षरों को नुक़्तों के भेद से नहीं समझाया जाता तो बहुत बड़ा अनर्थ हो
सकता था, जैसे-'अ़ाजिल' शब्द का 'अ़ा' उर्दू के 'ऐन' अक्षर से बना है और
इसका अर्थ है-जल्दी करनेवाला, जल्दबाज़; जल्दी वाली वस्तु; संसार,
दुनिया। मगर इसी शब्द का 'आ' जब 'अलिफ़' से बनाया जाता है तो उस 'आजिल'
का अर्थ हो जाता है-जिसमें विलम्ब और देर हो; परलोक, यमलोक, उक़्बा'।
अर्थात् अलिफ़ और ऐन के भेद से बने अक्षर बिलकुल विपरीत अर्थ देने लगते
हैं। 'इसी प्रकार 'आ' की मात्रा, जो अलिफ़ से बनी है उसे सामान्य तरीक़े
से लिख दिया गया है, जैसे 'आ', 'पा', 'जा' आदि, मगर 'ऐन' से बनी 'अ़ा' और
'ऐ' की मात्रा को 'आ' और 'ऐ' के पीछे (-'-) का चिह्न लगाकर प्रकट कर
दिया गया है, जैसे- आ', ला', 'मे'यार', 'मा'क़ूल' आदि। इसी प्रकार 'ज' और
'ज़' के अन्तर को भी स्पष्ट किया गया है और आवश्यकतानुसार स्थान-स्थान पर
विशेष स्पष्टीकरण भी दिए गए हैं ताकि भाषा और उच्चारण की शुद्घता बनी
रहे। यहाँ एक बात और स्पष्ट करना चाहूँगा कि अ़रबी-फ़ारसी कोश में बहुत-से
शब्द ऐसे हैं, जिनके कई-कई उच्चारण हैं। इस कोश में उन सबको समाहित किया
गया है। साथ ही जो शब्द अशुद्घ बोले जाते हैं, वे अशुद्घ शब्द भी इस कोश
में दे दिए गए हैं और वहीं उनके अशुद्घ होने का हवाला देकर बता दिया गया
है कि उसका शुद्ध उच्चारण क्या है। जो शब्द अशुद्घ हैं मगर उर्दू या फ़ारसी
में शुद्घ मान लिये गए हैं, उनकी व्याख्या भी कर दी गई है। इसके साथ ही
उन शब्दों और वाक्यों को भी इस कोश में रखा गया है जो कोर्ट-कचहरी में
अक्सर प्रयुक्त होते हैं। कोश में यथासंभव मुहावरों, कहावतों के साथ-साथ वाक्य-प्रयोगों द्वारा भी
शब्द के अर्थ को सरलता से समझाने का प्रयास किया गया है। इस कोश में उन
यौगिक-शब्दों को भी समाहित किया गया है, जो उर्दू के सुप्रसिद्घ विद्वानों और शाइरों
ने अपनी रचनाओं में प्रयोग किए और जिनकी वजह से रचना
ने अपना चामत्कारिक प्रभाव छोड़ा।
-देवेन्द्र माँझी,
आर-ज़ैड-25-डी, गली नं.-5, सिण्डीकेट इन्क्लेव,
पंखा रोड, नई दिल्ली-110045
13 अक्टूबर, 2015
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बहुत ही बढ़िया कोशिश की है आपने जनाब।
ReplyDeleteअगर इस कोश में
ऑनलाईन words खोजने का कोई ज़रिया है तो बताएं सर
Kahkase
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